Updated on: Fri, 14 Jun 2013 03:05 PM (IST)
आधार कार्ड का औचित्य
देश के 18 जिलों में एलपीजी पर कैश सब्सिडी आधार कार्ड के जरिये बैंक अकाउंट में डालने की प्रक्रिया की शुरुआत की गई है, लेकिन यहां उठने वाला सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर देश के आम लोगों को अपनी पहचान के लिए आखिर कितने कार्डो की जरूरत है। आखिर कब तक सरकारें नई-नई कार्ड योजनाओं पर धन व्यय करती रहेंगी। सरकार का हर विभाग अपनी ओर से एक न एक कार्ड की अनिवार्यता बनाए हुआ है। आम आदमी जब किसी विभाग में जाता है, तो अनेक सरकारी दस्तावेजों के झंझट की वजह से उसके मन में हमेशा घबराहट होती है कि कहीं कोई जरूरी कार्ड छूट तो नहीं गया और साथ ही चिंता इस बात की भी होती है कि कहीं किसी और नए सरकारी कार्ड की अनिवार्यता जुड़ तो नहीं गई।
वास्तव में यह हमें भी नहीं मालूम कि कब इतने सरकारी कार्डो के झंझट से मुक्ति मिलेगी। फिलहाल आजकल जिस नए कार्ड पर सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है, वह है यूपीए सरकार की बहुचर्चित स्कीम के तहत जारी होने वाला आधार कार्ड। एक तरफ हमारी सरकार लगातार गैरकानूनी तरीके से देश में घुसपैठ करके आ रहे बांग्लादेशियों के प्रति घोर चिंतित है वहीं दूसरी ओर वह ऐसी योजनाओं को शुरू कर रही है कि जिससे भारतीय और विदेशी नागरिकों में फर्क करना मुश्किल हो जाएगा। आज हमारे देश में बांग्लादेशियों की वास्तविक संख्या कितनी है इसका सही सही आकलन करना मुश्किल है। वर्ष 1996 में तत्कालीन गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्ता के मुताबिक उस समय बांग्लादेशियों की संख्या तकरीबन ढाई करोड़ थी। अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों के चलते आज असम और उत्तर पूर्वी राज्यों की जनसांख्यिकी ही बदल चुकी है। यह कुछ लोगों के लिए चौंकाने वाली बात हो सकती है पर यहां के कई जिलों में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों की संख्या यहां पर रह रहे भारतीयों से भी कहीं अधिक है।
सबसे बड़ा डर यह है कि जिस तरह से भारतीय नागरिक का तमगा देने वाले इस कार्ड को बनाया जा रहा है, उससे देश में गैरकानूनी तौर पर रह रहे विदेशी लोग भी आसानी से भारत के नागरिक बन जाएंगे। इन कार्डो के बनने की प्रक्रिया कितनी गलत है यह इस बात से पता चलता है कि पिछले हफ्ते एक अंग्रेजी अखबार में छपी रिपोर्ट के अनुसार बेंगलूर में कुत्तों के नाम पर भी ये कार्ड बन गए हैं। अवैधानिक तरीके से देश में रह रहे बांग्लादेशियों के मुद्दे पर हमारी सरकार कितनी गंभीर है, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि सरकार ने गैरकानूनी अप्रवासी निरोधक कानून तहत यह जिम्मेदारी पुलिस को दे रखी है कि कोई व्यक्ति पाकिस्तानी है या बांग्लादेशी। इसलिए आज की तारीख में इसका पालन करना सबसे मुश्किल है। किसी दूसरे देश की सरकार से यह इस बात का पत्र लेना कि अमुक व्यक्ति उनके देश का नागरिक है या नहीं, अपने आप में असंभव सा कार्य है। सुप्रीम कोर्ट ने इसके अनुपालन में आने वाली वास्तविकता को समझ कर ही इस कानून को खत्म किया।
राजनीतिक तौर पर वोट बैंक के चलते जो विकास देश के लोगों के लिए होना चाहिए उसका लाभ भी तमाम गैर भारतीय उठा रहे हैं और उनमें से कुछ तो आतंकवाद जैसी गतिविधियों में भी लिप्त हैं। अब आधार कार्ड की अनिवार्यता के चलते यह समस्या और विकराल हो जाएगी।
यदि कोई सोचे कि उसके पास जरूरी सरकारी दस्तावेजों में से कितने कागजात हैं तो निश्चित ही वह हैरत में पड़ जाएगा। इस तरह की सूची बहुत लंबी है, लेकिन सवाल यही है कि यह आपके लिए कितनी आवश्यक है। तमाम सरकारी विभागों द्वारा जारी किए गए दस्तावेजों को भी अपने साथ रखना जरूरी होता है, क्योंकि अलग-अलग कामों के लिए इनकी अनिवार्यता पड़ती रहती है। देश के हर आम और खास आदमी के लिए इस तरह की जरूरी सरकारी दस्तावेजों की सूची का कहीं कोई अंत नहीं है। ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, पहचान पत्र, पैन कार्ड, राशन कार्ड, वोटर आई कार्ड, आर्म्स लाइसेंस, एटीएम कार्ड, क्रेडिट कार्ड जैसे दर्जनों कार्ड आज किसी भी व्यक्ति के लिए जरूरत का पर्याय बन गए हैं और अब इस सूची में आधार कार्ड भी जुड़ गया है।
वर्ष 1980 में मैं जब वाणिज्य मंत्रालय में कार्यरत था, उस समय देश के निर्यातकों या आयातकों को काम करने के लिए 180 दस्तावेज पेश करने होते थे। उस समय वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के निर्देशन में बनी कमेटी ने इनकी संख्या घटाकर केवल 28 कर दी थी। उस समय भी इस सबको लेकर बहुत ऊहापोह हुई पर खुदा न खास्ता इसका कोई बड़ा दुरुपयोग सामने नहीं आया।
वर्तमान संप्रग सरकार आधार कार्ड पर बहुत जोर दे रही है, लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाली नई सरकार किसी और कार्ड का विकल्प पेश न करे। मेरे विचार से अब समय आ गया है, जबकि सरकार इस बात पर विचार करे कि केवल एक भारतीय नागरिकता कार्ड को मान्यता दे जो देश में सभी विभागों द्वारा स्वीकार्य और मान्य हों। विदेश यात्रा के लिए पासपोर्ट का होना सही है, पर हर बार किसी एक नए कार्ड के नाम पर हम सैकड़ों सरकारी अध्यापकों और दूसरे अन्य कर्मियों को इस काम में लगाकर उनकी ऊर्जा और समय को बर्बाद करते हैं।
इस संदर्भ में एक बड़ी बात यह है कि सरकार भी यह नहीं बता सकती है कि एक आदमी को कितने कार्डो को हमेशा अपने पास रखना चाहिए। वर्ष 2011 में अगस्त के महीने में योजना आयोग ने गृह मंत्रालय से कहा था कि रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया के एक प्रस्ताव के क्रियान्वयन में 1000 करोड़ रुपया खर्च आएगा और यूआईडीआई के प्रस्ताव पर 14841 करोड़ रुपये खर्च होंगे और ये दोनों प्रस्ताव कहीं न कहीं एक दूसरे को ओवरलैप या डुप्लीकेट करेंगे। यह अपने आप में कैबिनेट कमेटी के उस विचार को क्षति पहुंचाते हैं, जिसके अनुसार दोहराव नहीं होनी चाहिए।
कार्ड दर कार्ड की इस बढ़ती परंपरा के चलते वह दिन दूर नहीं जब हमें डिब्बा भर कार्डो को हमेशा अपने साथ रखना होगा और इस सबका बुरा प्रभाव हमारे प्रशासनिक स्टाफ और करदाताओं पर ही पड़ेगा। अगर वास्तव में भारत सरकार इस मुद्दे पर गंभीर है तो उसे सिर्फ एक कार्ड को ही ऐसी मान्यता देनी चाहिए जिसे देश के सभी हिस्सों और विभागों में स्वीकार और मान्य किया जाए। अब समय आ गया है जब विचार करना चाहिए कि आखिर कब तक नए-नए कार्डो की योजना के नाम पर श्रम और धन का अपव्यय होता रहेगा। इसमें अपव्यय होने वाला धन किसी और विकास योजना में लगाया जाए जिससे जनकल्याण हो सके। हमें इस तरह के आर्थिक अपव्यय को रोकना होगा आखिर एक ही काम में पैसा बहाना कोई अच्छी बात तो नहीं। [जोगिंदर सिंह]