ज्योत्स्ना पंत | Apr 11, 2013, 12:49PM IST
आर्टिकल
देश के 74 जिलों में जुलाई 2013 से गैस सिलेंडर पर सब्सिडी भी कैश ट्रांसफर स्कीम से दी जाने लगेगी। पहले ही जनता आधार कार्ड की गड़बड़ियों से परेशान है। ऐसे में उसे कैश ट्रांसफर स्कीम से जोड़ने पर सवाल उठने लगे हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल ही में स्वीकार किया है कि कैश ट्रांसफर स्कीम की कार्यप्रणाली में अभी कुछ खामियां हैं। वहीं राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पर संसद की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जब तक बैंकों का ढांचा खड़ा न हो, तब तक कैश ट्रांसफर स्कीम को अमलीजामा पहनाना सही नहीं है।
दूसरी तरफ आधार कार्ड को लेकर नित नई तकनीकी गड़बड़ियां सामने आ रही हैं। ऐसे में इन दोनों को आपस में जोड़ने की पहल कितनी कारगर होगी, इस पर सवाल उठने लगे हैं। आधार और कैश ट्रांसफर स्कीम को जोड़ सरकार ने राजस्थान के कोटकासिम में राशन की दुकान पर सस्ते में केरोसिन बांटना तय किया। इसके लिए आधार कार्ड धारी के खाते में पैसे डाले गए, लेकिन तीन महीने तक लोग केरोसिन नहीं ले पाए, क्योंकि यह राशि बैंक खाते में आई और
बैंक दूर होने या खाता न होने के कारण लोगों को उसका लाभ नहीं मिल पाया।
कोटकासिम का प्रयोग फेल होने के बाद भी सरकार का ध्यान उन कमियों पर नहीं गया है, जिन्हें दूर करना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके विपरीत वह एलपीजी सिलेंडर को भी इससे जोड़ने जा रही है। इस पर विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार का उद्देश्य तो सही है, लेकिन उसके क्रियान्वयन में लूप होल्स का खामियाजा अब जनता को भुगतना पड़ सकता है। वहीं कुछ का मानना है कि सरकार की नजर आने वाले लोकसभा चुनाव 2014 पर है और वह इसके जरिए अपने हित साध रही है।
सवालों के घेरे में आधार
विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) का मानना है कि जैविक पहचान चिह्न (बायोमीट्रिक चिह्न) किसी एक व्यक्ति की खास और विशेष पहचान सुनिश्चित करते हैं। लेकिन अमेरिका की नेशनल रिसर्च कौंसिल की एक स्टडी में सामने आया है कि बायोमीट्रिक चिह्न प्राकृतिक रूप से बदलते हैं। तीन से पांच सालों में आंखों की पुतलियों के निशान बदल जाते हैं, जबकि पांच सालों के बाद अंगुलियों के निशान भी बदलने लगते हैं। इस हिसाब से तो पांच साल बाद आधार कार्ड से हमारी पहचान पाएगी तो फिर इस पूरी कवायद का फायदा ही क्या? दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं, जिनके फिंगर प्रिंट्स और आंखों की पुतलियों के निशान नहीं लिए जा सकते।
यदि हम अंगुलियों के निशान की बात करें तो देश में हर रोज मजदूरी करने वाले 15 करोड़ से भी अधिक लोग हैं, जिनकी अंगुलियों के निशान लगभग घिस गए हैं तो उनके फिंगर प्रिंट्स कैसे लिए जाएंगे? वहीं मोतियाबिंद के मरीजों, दृष्टिहीनों की आंखों की पुतलियों के निशान भी नहीं लिए जा सकते। देश में मोतियाबिंद के शिकार 1.20 करोड़ लोग हैं। इन करोड़ों लोगों के निशान नहीं लिए गए तो इन्हें कैसे आधार मिलेगा? इसके अलावा भी आधार को लेकर कई तकनीकी गड़बड़ियां सामने आ रही हैं। मतदाता परिचय पत्र की तरह आधार में भी किसी का फोटो, किसी का नाम, कभी फिंगर प्रिंट मैच न करना जैसी दिक्कतें सामने हैं। इससे आधार विश्वसनीयता ही सवालों के घेरे में है।
तो कैसे बनेगा सही आधार?
नौसेना में अपनी सेवाएं दे चुके सेवानिवृत्त अफसर बीबी सक्सेना ने आधार कार्ड को लेकर काफी रिसर्च किया है। उन्हें आधार कार्ड बनवाने की प्रक्रिया में ही कुछ तकनीकी खामियां मिली हैं। इनमें से पांच प्रमुख इस प्रकार हैं।
कम्प्यूटर अकसर बंद क्यों हो जाते हैं?
आधार कार्ड रजिस्ट्रेशन सेंटर पर टेक्नीकली साउंड कम्प्यूटर व नेटवर्किग के साथ ही कुछ संसाधनों का होना
अनिवार्य है, ताकि क्वॉलिटी सर्विस दी जा सके। लेकिन लगभग सभी रजिस्ट्रेशन सेंटर्स में इनका अभाव है।
प्राइवेसी और सिक्योरिटी के लिए खतरा है?
हां, क्योंकि आधार रजिस्ट्रेशन सेंटर प्राइवेट ठेके पर चल रहे हैं। इनमें काम करने वाले अपने फायदे के लिए आधार
का डाटा किसी से भी शेयर कर सकते हैं। ऐसे में डाटा सिक्योरिटी की गारंटी नहीं है। निजता भी सुरक्षित नहीं रहेगी।
बिना फिंगर पिंट्र कैसे मिलेगा आधार?
तकरीबन 30 प्रतिशत जनता के आधार कार्ड नहीं बन पाए हैं, क्योंकि उनके फिंगर प्रिंट ही नहीं आ रहे हैं। इनमें बुजुर्ग, मजदूर और किसान वर्ग शामिल है। यदि इनके आधार नहीं बने तो इनकी पहचान नहीं हो पाएगी और
लाभ भी नहीं मिलेगा।
फिंगर प्रिंट सही क्यों नहीं आते?
पहले बायोस्कैन-10 से फिंगर प्रिंट लिए जा रहे थे, जो सर्टिफाइड ही नहीं था। पहला आधार सितंबर 2010 को जारी हुआ, जबकि बायोस्कैन-10 को सर्टिफिकेशन जून 2011 में मिला। दिसंबर 2011 में यह आउट ऑफ सर्विस
हो गया।
लॉन्चिंग से पहले किया स्कैनर का उपयोग?
इस समय जिस फिंगर प्रिंट स्कैनर डैक्टीस्कैन 84 सी का उपयोग किया जा रहा है, उसे इटली की निर्माता कंपनी
ग्रीन-बिट ने जुलाई 2012 में लॉन्च किया, जबकि हमारे यहां इसका उपयोग दिसंबर 2011 से ही शुरू हो गया था।
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आधार कैश ट्रांसफर स्कीम : अभी से उठने लगे सवाल
ज्योत्स्ना पंत | Apr 11, 2013, 12:49PM IST
देश के 74 जिलों में जुलाई 2013 से गैस सिलेंडर पर सब्सिडी भी कैश ट्रांसफर स्कीम से दी जाने लगेगी। पहले ही जनता आधार कार्ड की गड़बड़ियों से परेशान है। ऐसे में उसे कैश ट्रांसफर स्कीम से जोड़ने पर सवाल उठने लगे हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल ही में स्वीकार किया है कि कैश ट्रांसफर स्कीम की कार्यप्रणाली में अभी कुछ खामियां हैं। वहीं राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पर संसद की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जब तक बैंकों का ढांचा खड़ा न हो, तब तक कैश ट्रांसफर स्कीम को अमलीजामा पहनाना सही नहीं है।
दूसरी तरफ आधार कार्ड को लेकर नित नई तकनीकी गड़बड़ियां सामने आ रही हैं। ऐसे में इन दोनों को आपस में जोड़ने की पहल कितनी कारगर होगी, इस पर सवाल उठने लगे हैं। आधार और कैश ट्रांसफर स्कीम को जोड़ सरकार ने राजस्थान के कोटकासिम में राशन की दुकान पर सस्ते में केरोसिन बांटना तय किया। इसके लिए आधार कार्ड धारी के खाते में पैसे डाले गए, लेकिन तीन महीने तक लोग केरोसिन नहीं ले पाए, क्योंकि यह राशि बैंक खाते में आई और
बैंक दूर होने या खाता न होने के कारण लोगों को उसका लाभ नहीं मिल पाया।
कोटकासिम का प्रयोग फेल होने के बाद भी सरकार का ध्यान उन कमियों पर नहीं गया है, जिन्हें दूर करना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके विपरीत वह एलपीजी सिलेंडर को भी इससे जोड़ने जा रही है। इस पर विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार का उद्देश्य तो सही है, लेकिन उसके क्रियान्वयन में लूप होल्स का खामियाजा अब जनता को भुगतना पड़ सकता है। वहीं कुछ का मानना है कि सरकार की नजर आने वाले लोकसभा चुनाव 2014 पर है और वह इसके जरिए अपने हित साध रही है।
सवालों के घेरे में आधार
विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) का मानना है कि जैविक पहचान चिह्न (बायोमीट्रिक चिह्न) किसी एक व्यक्ति की खास और विशेष पहचान सुनिश्चित करते हैं। लेकिन अमेरिका की नेशनल रिसर्च कौंसिल की एक स्टडी में सामने आया है कि बायोमीट्रिक चिह्न प्राकृतिक रूप से बदलते हैं। तीन से पांच सालों में आंखों की पुतलियों के निशान बदल जाते हैं, जबकि पांच सालों के बाद अंगुलियों के निशान भी बदलने लगते हैं। इस हिसाब से तो पांच साल बाद आधार कार्ड से हमारी पहचान पाएगी तो फिर इस पूरी कवायद का फायदा ही क्या? दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं, जिनके फिंगर प्रिंट्स और आंखों की पुतलियों के निशान नहीं लिए जा सकते।
यदि हम अंगुलियों के निशान की बात करें तो देश में हर रोज मजदूरी करने वाले 15 करोड़ से भी अधिक लोग हैं, जिनकी अंगुलियों के निशान लगभग घिस गए हैं तो उनके फिंगर प्रिंट्स कैसे लिए जाएंगे? वहीं मोतियाबिंद के मरीजों, दृष्टिहीनों की आंखों की पुतलियों के निशान भी नहीं लिए जा सकते। देश में मोतियाबिंद के शिकार 1.20 करोड़ लोग हैं। इन करोड़ों लोगों के निशान नहीं लिए गए तो इन्हें कैसे आधार मिलेगा? इसके अलावा भी आधार को लेकर कई तकनीकी गड़बड़ियां सामने आ रही हैं। मतदाता परिचय पत्र की तरह आधार में भी किसी का फोटो, किसी का नाम, कभी फिंगर प्रिंट मैच न करना जैसी दिक्कतें सामने हैं। इससे आधार विश्वसनीयता ही सवालों के घेरे में है।
तो कैसे बनेगा सही आधार?
नौसेना में अपनी सेवाएं दे चुके सेवानिवृत्त अफसर बीबी सक्सेना ने आधार कार्ड को लेकर काफी रिसर्च किया है। उन्हें आधार कार्ड बनवाने की प्रक्रिया में ही कुछ तकनीकी खामियां मिली हैं। इनमें से पांच प्रमुख इस प्रकार हैं।
कम्प्यूटर अकसर बंद क्यों हो जाते हैं?
आधार कार्ड रजिस्ट्रेशन सेंटर पर टेक्नीकली साउंड कम्प्यूटर व नेटवर्किग के साथ ही कुछ संसाधनों का होना
अनिवार्य है, ताकि क्वॉलिटी सर्विस दी जा सके। लेकिन लगभग सभी रजिस्ट्रेशन सेंटर्स में इनका अभाव है।
प्राइवेसी और सिक्योरिटी के लिए खतरा है?
हां, क्योंकि आधार रजिस्ट्रेशन सेंटर प्राइवेट ठेके पर चल रहे हैं। इनमें काम करने वाले अपने फायदे के लिए आधार
का डाटा किसी से भी शेयर कर सकते हैं। ऐसे में डाटा सिक्योरिटी की गारंटी नहीं है। निजता भी सुरक्षित नहीं रहेगी।
बिना फिंगर पिंट्र कैसे मिलेगा आधार?
तकरीबन 30 प्रतिशत जनता के आधार कार्ड नहीं बन पाए हैं, क्योंकि उनके फिंगर प्रिंट ही नहीं आ रहे हैं। इनमें बुजुर्ग, मजदूर और किसान वर्ग शामिल है। यदि इनके आधार नहीं बने तो इनकी पहचान नहीं हो पाएगी और
लाभ भी नहीं मिलेगा।
फिंगर प्रिंट सही क्यों नहीं आते?
पहले बायोस्कैन-10 से फिंगर प्रिंट लिए जा रहे थे, जो सर्टिफाइड ही नहीं था। पहला आधार सितंबर 2010 को जारी हुआ, जबकि बायोस्कैन-10 को सर्टिफिकेशन जून 2011 में मिला। दिसंबर 2011 में यह आउट ऑफ सर्विस
हो गया।
लॉन्चिंग से पहले किया स्कैनर का उपयोग?
इस समय जिस फिंगर प्रिंट स्कैनर डैक्टीस्कैन 84 सी का उपयोग किया जा रहा है, उसे इटली की निर्माता कंपनी
ग्रीन-बिट ने जुलाई 2012 में लॉन्च किया, जबकि हमारे यहां इसका उपयोग दिसंबर 2011 से ही शुरू हो गया था।