देशवासियों को निराधार करती आधार परियोजना
समयांतर , नवम्बर, २०११
हर भारतवासी को एक विशिष्ट पहचान (यू.आई.डी.)/आधार अंक आवंटित करने की जो योजना शुरू कर दी गई है, वह और कुछ नहीं, बल्कि देशवासियों के निजी जीवन पर एक तरह का हमला है जिसे नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकार के हनन के रूप में ही समझा जा सकता है, जिस समय ब्रिटेन की नई साझा सरकार ने संसद में वहां के पहचानपत्र कानून 2006 को समाप्त करने के लिए प्रस्ताव लाने का फैसला किया है, ठीक उसी समय भारत सरकार ने विशिष्ट पहचान अंक (यू.आई.डी./आधार परियोजना) को हरी झंडी दे दी। एक तरफ भारत सरकार यह दावा कर रही है कि यह परियोजना शारीरिक हस्ताक्षर या जैवमापन (बायोमेट्रिक्स) को देशवासियों और नागरिक जीवन पर लागू करने की परियोजना है, वहीं दूसरी तरफ वह अपनी रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय द्वारा अंतर्राष्ट्रीय जैवमापक समूह को दी गई रिपोर्ट का हवाला देती है। दोनों बातों में भला क्या संबंध हो सकता है? यह योजना गाड़ियो और जानवरों पर भी लागु होने जा रही है, जो परत दर परत सामने आ रहा है. यह परियोजना १४ विकासशील देशो में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की कंपनियों और विश्व बैंक के जरिये लागु किया जा रहा है. दक्षिण एशिया में यह पाकिस्तान में लागु हो चुक है और नेपाल और बंगलादेश में लागु किया जा रहा है
भारत में इस बात पर कम ध्यान दिया गया है कि कैसे विराट स्तर पर सूचनाओं को संगठित करने की धारणा चुपचाप सामाजिक नियंत्रण, युद्ध के उपकरण और जातीय समूहों को निशाना बनाने और प्रताड़ित करने के हथियार के रूप में विकसित हुई है। भारत की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी साफ्टवेयर कंपनी इन्फोसिस टेक्नोलाजीज इंडिया लिमिटेड के सह-संस्थापक और सीईओ नंदन निलेकानी ने सरकार को यह यकीन दिलाने में सफलता पाई है कि 48 फीसदी निरक्षता वाले देश भारत के निर्धनतम लोगों तक पहुंचने में 12 अंकों वाला कार्ड सहायक होगा। विशिष्ट पहचान प्राधिकरण, 2009 के निर्माण से अस्तित्व में आई यू.आई.डी./आधार परियोजना जनवरी 1933 (जब हिटलर सत्तारूढ़ हुआ) से लेकर दूसरे विश्वयुद्ध और उसके बाद के दौर की याद ताजा कर देती है। जिस तरह इंटरनेशनल बिजनेस मशीन्स (आई.बी.एम.) नाम की दुनिया की सबसे बड़ी टेक्नॉलाजी कम्पनी ने नाजियों के साथ मिलकर यहूदियों की संपत्तियों को हथियाने, उन्हें नारकीय बस्तियों में महदूद कर देने, उन्हें देश से भगाने और आखिरकार उनके सफाए के लिए पंच-कार्ड (कम्प्यूटर का पूर्व रूप) और इन कार्डो के माध्यम से जनसंख्या के वर्गीकरण की प्रणाली के जरिए यहूदियों की निशानदेही की, उसने मानवीय विनाश के मशीनीकरण को सम्भव बनाया। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है।
खासतौर पर जर्मनी और आमतौर पर यूरोप के अनुभवों को नजरअंदाज करके, निशानदेही के तर्क को आगे बढ़ाते हुए वित्तमंत्री ने 2010-2011 का बजट संसद में पेश करते हुए फर्माया कि यू.आई.डी. परियोजना वित्तीय योजनाओं को समावेशी बनाने और सरकारी सहायता (सब्सिडी) जरूरतमंदों तक ही पहुंचाने के लिए उनकी निशानदेही करने का मजबूत मंच प्रदान करेगी। जबकि यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि निशानदेही के यही औजाद बदले की भावना से किन्हीं खास धर्मो, जातियों, क्षेत्रों, जातीयताओं या आर्थिक रूप से असंतुष्ट तबकों के खिलाफ भी इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं। आश्चर्य है कि आधार परियोजना के प्रमुख यानी वित्त मंत्री ने वित्तीय समावेशन की तो बात की, लेकिन गरीबों के आर्थिक समावेशन की नहीं। भारत में राजनीतिक कारणों से समाज के कुछ तबकों का अपवर्जन लक्ष्य करके उन तबकों के जनसंहार का कारण बना- 1947 में, 1984 में और सन् 2002 में। अगर एक समग्र अन्तः आनुशासनिक अध्ययन कराया जाए तो उससे साफ हो जाएगा कि किस तरह निजी जानकारियां और आंकड़े जिन्हें सुरक्षित रखा जाना चाहिए था, वे हमारे देश में दंगाइयों और जनसंहार रचाने वालों को आसानी से उपलब्ध थे।
भारत सरकार भविष्य की कोई गारंटी नहीं दे सकती। अगर नाजियों जैसा कोई दल सत्तारूढ़ होता है तो क्या गारंटी है कि यू.आई.डी. के आंकड़े उसे प्राप्त नहीं होंगे और वह बदले की भावना से उनका इस्तेमाल नागरिकों के किसी खास तबके के खिलाफ नहीं करेगा? दरअसल यही जनवरी 1933 से जनवरी 2009 तक के निशानदेही के प्रयासों का सफरनामा है। यू.आई.डी. और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर वही सब कुछ दोहराने का मंच है जो जर्मनी, रूमानिया, यूरोप और अन्य जगहों पर हुआ जहां वह जनगणना से लेकर नाजियों को यहूदियों की सूची प्रदान करने का माध्यम बना। यू.आई.डी. का नागरिकता से कोई संबंध नहीं है, वह महज निशानदेही का साधन है। इस पृष्ठभूमि में, हम जिम्मेदार नागरिकों के बतौर ब्रिटेन की नई साझा सरकार द्वारा विवादास्पद राष्ट्रीय पहचानपत्र योजना को समाप्त करने के निर्णय का स्वागत करते हैं ताकि नागरिकों की निजी जिंदगियों में हस्तक्षेप से उनकी सुरक्षा हो सके। ब्रिटेन की पहचानपत्र परियोजना को अगले 3-4 महीनों में समाप्त किया जाना है। पहचानपत्र कानून 2006 और स्कूलों में बच्चों की उंगलियों के निशान लिए जाने की प्रथा का खात्मा करने के साथ-साथ ब्रिटेन सरकार अपना राष्ट्रीय पहचानपत्र रजिस्टर बंद कर देगी। अगली पीढ़ी के जैवसांख्यिकीय पासपोर्ट, सम्पर्क-बिन्दुओं पर इकट्ठा किये जाने वाले आंकड़ों तथा इंटरनेट और ई-मेल के रिकार्ड का भंडारण खत्म किया जाएगा।
आधार या यू.आई.डी. परियोजना लगभग वही करने जा रही है जो कि हिटलर के सत्तारूढ़ होने से पहले के जर्मन सत्ताधारियों ने किया, अन्यथा यह कैसे सम्भव था कि यहूदी नामों की सूची नाजियों के आने से पहले भी जर्मन सरकार के पास रहा करती थी? नाजियों ने यह सूची आई.बी.एम. कम्पनी से प्राप्त की जो कि जनगणना के व्यवसाय में पहले से थी। यह जनगणना नस्लों के आधार पर भी की गई थी जिसके चलते न केवल यहूदियों की गिनती, बल्कि उनकी निशानदेही सुनिश्चित हो सकी, वाशिंगटन डी.सी. स्थित अमेरिका के होलोकास्ट म्युजियम (विभीषिका संग्रहालय) में आई.बी.एम. की होलोरिथ डी-11 कार्ड सार्टिग मशीन आज भी प्रदर्शित है जिसके जरिए 1933 की जनगणना में यहूदियों की पहले-पहल निशानदेही की गई थी।
लेकिन ब्रिटेन सरकार के विपरीत भारत सरकार ने पिछले साल 18 मई की प्रेस विज्ञप्ति में बताया था कि कैबिनेट कमेटी ने भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण द्वारा निवासियों के जनसांख्यिकीय और जैवसांख्किीय आंकड़ों को इकट्ठा करने की जो पद्धति सुझाई गई है, उसे सिद्धांततः स्वीकार कर लिया है। इसमें चेहरे, नेत्रगोलक (पारितारिका) की तस्वीर लेने और सभी दस उंगलियों के निशान लेने का प्रावधान है। इसमें 5 से 15 आयुवर्ग के बच्चों के नेत्रगोलक के आंकड़े इकट्ठा करना शामिल है। इन्हीं मानकों और प्रक्रियाओं को जनगणना के लिए रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया और यू.आई.डी. व्यवस्था के अन्य रजिस्ट्रारों को भी अपनाना पड़ेगा।
आश्चर्य नहीं कि इन प्रयासों के खिलाफ चल रहे लोकतांत्रिक आंदोलनों के प्रति सरकार अनभिज्ञता का स्वांग कर रही है। जिसे ब्रिटेन में नकार दिया गया, उसे भारत में भी नकारे जाने के प्रबल आधार हैं। यू.आई.डी. परियोजना नागरिक स्वतंत्रताओं में भीषण दखलंदाजी और कटौती करती है। नागरिकों की पहचान का जो रास्ता सरकार अपना रही है उसका आधार सन् 2000 में पारित सूचना तकनीक कानून है जिसे पारित करते समय नागरिकों के निजी जीवन के तथ्यों की सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं किया गया था।
भारत की यू.आई.डी. परियोजना की ही तरह ब्रिटेन में भी इसका कभी कोई उद्देश्य बताया जाता था, कभी कोई। इस परियोजना को गरीबों के नाम पर थोपा जा रहा है। कहा जा रहा है कि पहचान का मसला राशन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, बैंक खाता, मोबाइल कनेक्शन आदि लेने में अवरोध उत्पन्न करता है। पहचान अंक पत्र गरीब नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य और वित्तीय सेवाओं सहित अनेक संसाधन प्राप्त करने योग्य बनाएगा। ब्रिटेन की बदनाम हो चुकी परियोजना के पदचिन्हों पर चलते हुए यह भी कहा जा रहा है कि पहचान अंकपत्र से बच्चों को स्कूल में दाखिले में मदद मिलेगी। ब्रिटेन सरकार के हाल के निर्णय के बाद कहीं भारत में भी इस परियोजना को तिलांजलि न दे देनी पड़े, इस बात की आशंका के चलते अब सरकार के द्वारा कहा जा रहा है कि यू.आई.डी. अंक वैकल्पिक है अनिवार्य नहीं।
यू.आई.डी. से जुड़ी है राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एन.पी.आर.) की परियोजना। यह पहली बार है कि ऐसी रिपोर्ट बनाई जा रही है। इसके जरिए रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया आंकड़ों का भंडार तैयार करेंगे। यह समझ लेना होगा कि जनगणना और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर अलग-अलग चीजें हैं। जनगणना जनसंख्या, साक्षरता, शिखा, आवास और घरेलू सुविधाओं, आर्थिक गतिविधि, शहरीकरण, प्रजनन दर, मृत्युदर, भाषा, धर्म और प्रवासन आदि के संबंध में बुनियादी आंकड़ों का सबसे बड़ा स्रोत है जिसके आधार पर केंद्र व राज्य सरकारें योजनाएं बनती हैं और नीतियों का क्रियान्वयन करती हैं, जबकि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर पूरे देश के नागरिकों के पहचान संबंधी आंकड़ों का समग्र भंडार तैयार करने का काम करेगा। इसके तहत व्यक्ति का नाम, उसके माता, पिता, पति/पत्नी का नाम, लिंग, जन्मस्थान और तारीख, वर्तमान वैवाहिक स्थिति, शिक्षा, राष्टीयता, पेशा, वर्तमान और स्थायी निवास का पता जैसी तमाम सूचनाओं का संग्रह किया जाएगा। इस आंकड़ा-भंडार में 15 साल की उम्र से उपर सभी व्यक्तियों की तस्वीरें और उनकी उंगलियों के निशान भी रखे जाएंगे।
राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के आंकड़ो-भंडार को अंतिम रूप देने के बाद, अगला कार्यभार होगा हर नागरिक को विशिष्ट पहचान अंक प्रदान करना। यह अंक इसके बाद राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर में टांकें जांएगे। प्रस्तावित यह है कि पहचानपत्र एक तरह का स्मार्ट-कार्ड होगा जिसके उपर पहचान अंक के साथ व्यक्ति का नाम, उसके माता, पिता, पति/पत्नी का नाम, लिंग, जन्मस्थान और तारीख, फोटो आदि बुनियादी जानकारियां छपी होंगी। सम्पूर्ण विवरण का भंडारण चिप में होगा।
ब्रिटेन की ही तरह यहां भी 1.2 अरब लोगों को विशिष्ट पहचान अंक देने की कवायद को रोके जाने की जरूरत है, क्योंकि मानवाधिकार उलंघन की दृष्टि से इसके खतरे कल्पनातीत है। 12 अगस्त 2009 को विशिष्ट पहचान अंक प्राधिकरण की प्रधानमंत्री परिषद ने तय किया ब्रिटेन के पहचानपत्र कानून को 2006 (जिसे वहां खत्म किया जा रहा है) की तर्ज पर एक कानूनी ढांचा तैयार किया जाए। 13वें वित्त आयोग ने प्रति व्यक्ति 100 रूपए और प्रति परिवार 400-500 रूपए गरीब परिवारों को विशिष्ट पहचान अंक के लिए आवेदन करने हेतु प्रोत्साहन के बतौर दिए जाने का प्रावधान किया है। यह गरीबों को एक किस्म की रिश्वत ही है। इस उद्देश्य के लिए आयोग ने राज्य सरकारों को 2989.10 करोड़ की राशि मुहैया कराने की संस्तुति की है। कर्नाटक, मध्यप्रदेश और आंध्रप्रदेश ने प्राधिकरण के साथ विशिष्ट पहचान अंक के रजिस्ट्रार के बतौर राज्य-स्तरीय कमेटियों के निर्माण का करार भी कर लिया है। यह कमेटियां नागरिकों के अंगुलियों के निशान, नेत्रगोलक की छवि जैसे जैवमापक आंकड़ों का संग्रह करेंगी। क्या विधानसभाओं या संसद में कभी इस किस्म की परियोजना के परिणामों पर कोई बहस हुई है? वह भी ऐसी परियोजना जिसे ब्रिटेन में समाप्त किया जा रहा हो?
प्राधिकरण के महानिदेशक के हस्ताक्षर से जारी 29 सितम्बर 2009 के स्मारपत्र में कहा गया है कि मुख्य लक्ष्य है लाभकारी सेवाओं को, खासकर गरीबों और समाज के हाशिए पर रहनेवाले समूहों तक पहुंचाना। इस उद्देश्य को पाने के लिए प्राधिकरण प्रस्तावित करता है कि पहले एक ऐसे मंच का गठन हो जो पहचान संबंधी ब्योरे जुटाए, फिर उनकी प्रमाणिकता की जांच करे ताकि विभिन्न सरकारें और निजी क्षेत्र के सेवा-प्रदायक इनका इस्तेमाल कर सकें। निजी क्षेत्र के सेवा प्रदायकों का संदर्भ समझ से परे है क्योंकि इसका उद्देश्य सार्वजनिक, वह भी गरीबों और हाशिये के समूहों को फायदा पहुंचाना बताया गया है। इन तबकों तक सेवाओं को पहुंचाने का वादा इस बात को छिपा लेता है कि कैसे यह परियोजना संचार तकनीक उद्योग और जैवमापक उद्योग को अच्छा खासा मुनाफा पहुंचाएगी। इस तरह के दावे और वादे अगंभीर, भ्रामक और तथ्यतः गलत हैं। यह हमें भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ली गई शपथों की याद दिलाते हैं। यह दावे हमें झूठा विश्वास दिलाते हैं कि यह परियोजना आर्थिक समानता के संवैधानिक संकल्प को पूरा करेगी। इस तरह के उद्देश्य बखानना खराब किस्म के कुतर्को की तरह है।
प्राधिकरण ने एक जैवमापन मानक समिति (बायोमेट्रिक्स स्टैंडर्डस कमिटि) का गठन किया है जो उपलब्ध मानकों की समीक्षा करेगा और उन्हें संशोधित/संवरद्धित करेगा या आगे बढ़ाएगा ताकि प्रामाणिकता और दोहराव को खत्म करने के लक्ष्य प्राप्त किए जा सकें। ऐसा वह अंगुलियों के निशान, चेहरे और नेत्रगोलक की छवि उतारने के जैवमापक मानकों को तय करने के जरिए करेगा। प्राधिकरण ने जैवमापन को व्यक्ति की भौतिक, रासायनिक और व्यवहारजन्य विशेषताओं के आधार पर उसकी पहचान नियत करने का विज्ञान बताया है। प्राधिकरण का कहना है जहां चेहरे की तस्वीर पहले से ही अनेक किस्म के पहचानपत्रों के काम में आती है, वहीं प्राधिकरण उंगलियों के निशान के साथ साथ नेत्रगोलक (परितारिका) का रिकार्ड भी पहचान के लिए रखने का प्रयास कर रहा है। दोनों ओर से आंख के श्वेतपटल और पुतली के बीच स्थित परितारिका को जैवमापन का सबसे सटीक मानक माना जाता है। समिति खुलासा करती है कि जैवमापन सेवाओं के निष्पादन के समय सरकारी विभागों और वाणिज्यिक संस्थाओं द्वारा प्रामाणिकता स्थापित करने के लिए किया जाएगा। यहां वाणिज्यिक संस्थाओं को परिभाषित नहीं किया गया है।
जैवमापन मानक समिति जैवमापन में अमेरिका और यूरोप के पिछले अनुभवों का भी हवाला देती है। एक तकनीकी उपसमिति भी बनाई गई है जिसने भारतीय उंगलियों के निशान के विश्लेषण के लिए दिल्ली, यूपी, बिहार और ड़ीसा के जिलों से पच्चीस हजार लोगों के ढाई लाख उंगलियों के निशान इकट्ठा किया जाना था। इसी तरह चेहरे और परितारिका की छवियों के 12 करोड़ नमूनों का आंकड़ा कोष भी उसे बनाना था। यह भी संस्तुति की गई कि जैवमापक आंकड़े राष्ट्रीय निधि हैं और उन्हें उनके मौलिक रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए। समिति नागरिकों के आंकड़ाकोष को राष्ट्रीय निधि बताती है। यह निधि कब कंपनियों की निधि बन जाएगी कहा नहीं जा सकता.
राजनितिक दलों मे इस योजना को समझने की दिलचस्पी नहीं है. उनमे राष्ट्रीय पहचान प्राधिकरण विधेयक, २०१० को खंगालने की भी नहीं है जो कि सरकार का आम नागरिक समाज के खिलाफ असली हथियार है, जबकि विधेयक के पारित हुए बिना ही ३ करोड़ ७३ लाख यूनिक आइडेन्टटी नंबर/आधार संख्या बना लिए गए है जो कि नेशनल पोपुलेसन रजिस्टर (राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर) से जुड़ा हुआ है. जिसे देशवासियों की आँखों की पुतलियो, उंगलियों के निशान और तस्वीर के आधार पर बनाया जा रही है जो की अमानवीय है.
राजनितिक दलों मे इच्छाशक्ति का अभाव कंपनी विधेयक, २००९ के सम्बन्ध मे भी दिख रहा है जिसे जे जे इरानी समिति की सिफारिसो पर बनाया गया है. इसके तहत केवल एक व्यक्ति भी कंपनी बना सकता है. भारत के आर्थिक सर्वेक्षण २००५ के अनुसार देश मे ४ करोड़ २० लाख लोग उद्योग धंधे मे है जबकि कम्पनियों की संख्या ३ लाख से भी कम है. इस कानून के जरिये ४ करोड़ २० लाख उद्योग धंधो का कम्पनीकरण किया जा रहा है मगर गैर सरकारी संस्थानों को इसे खंगालने की फुर्सत नहीं या नियत नहीं है. जबकि नए कानून मंत्री वीरप्पा मोइली इसे पारित करवाने को अपनी प्राथमिकता बता रहे है. कंपनी कानून को नजर अंदाज ऐसे देश मे किया जा रहा जो २३ जून को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से अपने पराजित होने और शोषित होने का अपनी २५४वा वर्षगाठ मनाने से कतरा रहा है. इसी दिन की हार के कारण ब्रिटिश संसद को अवीभाजीत भारत के सम्बन्ध मे कानून बनाने का अधिकार मिला उसमे ब्रिटिश कम्पनी कानून भी शामिल है जिसे भारत ने बड़ी मासूमियत से अपना लिया. देश और सरकार का भी कम्पनीकरण किया जा रहा है. गैर सरकारी संस्थानों और कम्पनी आधारित अखबारों और चैनलों से यह उम्मीद करना की देश और सरकार के कम्पनीकरण को रोकेंगे, कल्पना करने की क्षमता मे विकलांगता को दर्शाता है.
विशिष्ट पहचान अंक और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर सम्मिलित रूप से राजसत्ता और बाजार के द्वारा जिन भी कारणों से नागरिकों पर नजर रखने के उपकरण हैं। ये परियोजनाएं न तो अपनी संरचना में और न ही अमल में निर्दोष हैं। विशिष्ट पहचान अंक प्राधिकरण के कार्य योजना प्रपत्र में कहा गया है कि विशिष्ट पहचान अंक सिर्फ पहचान की गारंटी है, अधिकारों, सेवाओं या हकदारी की गारंटी नहीं। आगे यह भी कहा गया है कि यह पहचान की भी गारंटी नहीं है, बल्कि पहचान नियत करने में सहयोगी है। हम विशिष्ट पहचान अंक जैसे उपकरणों द्वारा नागरिकों पर सतत नजर रखने और उनके जैवमापक रिकार्ड तैयार करने पर आधारित तकनीकी शासन की पुरजोर मुखालफत करने वाले व्यक्तियों, जनसंगठनों, जन आंदोलनों, संस्थाओं के अभियान का समर्थन करना होगा. और सी.ए.जी. से यह मांग करना होगा कि जनवरी 2009 से आज तक विशिष्ट पहचान अंक प्राधिकरण की कारगुजारियों की जांच करे। योजना आयोग और निलेकनी प्राधिकरण द्वारा किये गए कारनामो को तत्काल रोका जाये. देशवासियों के पास अपनी संप्रभुता को बचाने के लिए आधार अंक योजना का बहिष्कार ही एक मात्र रास्ता है.
कैदी पहचान कानून, १९२० के तहत किसी भी कैदी के उंगलियों के निशान को सिर्फ मजिसट्रेट की अनुमति से लिया जाता है और उनकी रिहाई पर उंगलियों के निशान के रिकॉर्ड को नष्ट करना होता है. कैदियों के ऊपर होनेवाले जुल्म की अनदेखी की यह सजा की अब हर देशवासी को उंगलियों के निशान देने होंगे और कैदियों के मामले में तो उनके रिहाई के वक्त नष्ट करने का प्रावधान रहा है, देशवासियों के पूरे शारीरिक हस्ताक्षर को रिकॉर्ड में रखा जा रहा है. बावजूद इसके जानकारी के अभाव में देशवासियों की सरकार के प्रति आस्था धार्मिक आस्थावो से भी ज्यादा गहरी प्रतीत होती है.
गोपाल कृष्ण